Home NATIONAL खुदगर्जी की धरती पर बटवारे का दावानल

खुदगर्जी की धरती पर बटवारे का दावानल

भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया

मजहब के नाम पर देश-दुनिया में बटवारा करने वालों की जमातों में निरंतर इजाफा होता जा रहा है। बटोगे-तो-कटोगे जैसे नारे बुलंद होने लगे हैं। वास्तविक बटवारा तो उच्चवर्ग और निम्नवर्ग के मध्य, सरकारी नुमाइन्दों और आम आवाम के मध्य, बलशाली और निर्बल के मध्य, शासक और शासित के मध्य, सक्षम और निरीह के मध्य हो कब का चुका है। सच्चाई की ओर से मुंह फेरने वाले लोग निहित स्वार्थों के लिये सम्प्रदाय, क्षेत्र और भाषा जैसे कारकों को रेखांकित करने लगते हैं। राजनैतिक दलों ने बटवारे वाले नारे से मत विभाजन को ध्रुवीकरण के आधार पर साधने की कोशिश की, तो मजहब के ठेकेदारों ने अपनी दुकानें चलाने के लिए इसका उपयोग शुरू कर दिया। कोई इसके समर्थन में अपने पौ-बारह होते देख रहा है तो किसी को विरोध करने पर लाभ की आशा है। मगर सच्चाई को उजागर करने के लिये पहल अभी तक नहीं हुई है। राजनैतिक दलों ने सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाने की ठान ली है। चुनावी मंचों से होने वाले उद्घोषों से लोगों की मंशा निरंतर सामने आ रही है। वहीं दूसरी ओर मजहबी इन्तजाम सम्हालने वाले केवल और केवल अपनी निजी सत्ता को कायम रखने की फिराक में ही लगे रहते हैं। वे न तो पैगामों का ईमानदाराना तर्जुमा करते हैं और न ही वेदों की व्याख्या। कमाई करने की ख्वाइश ने उन्हें अन्धा कर दिया है। आस्था के केन्द्रों में धनबली, बाहुबली, जनबली, सत्ताबली, पहुंचबली, संबंधबली जैसे लोगों के लिए नये-नये नियम बनाये जा रहे हैं ताकि बली श्रंखला के सामने आम आवाम को उनकी औकात दिखायी जा सके। कोई पैसों से भगवान के दर्शन खरीद रहा है तो कोई अपने रुतवे से बेधकड गर्भ-गृह तक घुसता चला जाता है। कहीं चादर चढाने के लिये लाइन से हटकर सीधा मजार तक पहुंचने हेतु सामाजिक प्रतिष्ठा का पैमाना है तो कहीं फंड बढाने वालों को खुली सहूलियतें मुहैया कराई जातीं हैं। नौकरशाही तो आस्था के सभी मापदण्डों को अपने ओहदे की ताकत के नीचे कुचलकर शान-ओ-शौकत के साथ किसी भी श्रध्दा के केन्द्र में प्रवेश करने का विशेषाधिकार रखते हैं। जनप्रतिनिधि का दमगा तो चयनित ओहदेदार के पूरे खानदान पर चमकता है। ऐसे में बल श्रंखला के आधुनिक लोगों की भीड को इबादतगाहों में पर्यटन, पिकनिक, मौज, मस्ती जैसे दिखावे ही हासिल होते हैं। वे मालिक के दरवार में न तो हाजिरी ही लगा पाते हैं और न ही उनकी दिखावा भरी दुआओं का असर ही सामने आता है। वहीं श्रध्दा की पूंजी लेकर माथ टेकने वाले आम आवाम की सादगी ही उनके मालिक तक पहुंचकर उनकी मुराद पूरी करती है। मजहबी मजलिशों में खून-खराबे की बातों का बोलबाला, धार्मिक सम्मेलनों में उन्माद फैलाने की कोशिशें, सामाजिक एकरसता की बैठकों में संकीर्ण मानसिकता के पोषण जैसी स्थितियां खुल्मखुल्ला देखने को मिल रहीं हैं। संविधान के रखवालों के लिए ऐसी घटनाएं, नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई है। सिर से ऊपर पानी पहुंचने की स्थिति में निचले स्तर के उत्तरदायित्व की अन्तिम पायदान वालों को बली का बकरा बनाकर कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है। सनातन का ढिंढोरा पीटने वालों को उसकी शाश्वत परिभाषा निरंतर विरोध दर्ज करा रही है तो खुदा के पैगाम का मनमाना तजुर्मा करने वालों को हकीकत का आइना देखने से भी डर लगता है। विभिन्न आस्था के आयामों की सामाजिक व्यवस्था आज धूलधूषित हो चुकी है। ऊंच-नीच की दीवारें अब जातिगत खाइयों में तब्दील होने लगीं हैं। ईमानदाराना बात तो यह है कि बांटने और काटने वाले दो नहीं है बल्कि एक ही हैं। नियम बनाने वाले ही नियमों को तोडते हैं। पहले नियम बनाओ, फिर नियमों को डर दिखाओ और फिर नियम बनाने के वास्तविक लक्ष्य को हासिल करने के लिए उसे पर्दे के पीछे से तोड दो। अब तो आस्था के आसमान में चमकती सच्चाई को ढकने की कोशिश करने वाले अनगिनत चील-कौवे पंख फडफडाते दिखाई देने लगे हैं। वास्तविक आस्था तो गरीब की झोपडी में पैदा होते ही मार दी जाती है। कहीं धन की चाकू से तो कहीं बल की तलवार से, कहीं सत्ता के भाले से तो कहीं मजबूरी की बरछी से किस्तों में कत्ल होती इंसानियत अपनी बदहाली पर जार-जार आंसू बहाती देखी जा सकती है। मजार तक पहुंचने के लिए लम्बी लाइनों में लगकर दिली मुराद मांगने वालों के ऊपर चमचमाते लिबासों के रुतवे रोज ही देखे जा सकते हैं। सबका मालिक एक होते हुए भी पहले उसे अलग-अलग खेमों में बांटा और फिर उस तक पहुंचने के लिए भी दुनियादारी शुरू कर दी। रूह के मसले को जिस्म की रोशनी में देखने की कबायत शुरू हो गई। जबकि हकीकत तो यह है कि रूह हमेशा ही अहसासों के रास्ते सुकून के तोहफों से नवाजती है। रोजमर्रा की जिन्दगी में जिस्मानी औकात दुनियावी मतलब पर ही ठहर गई है जबकि यही जिस्म जब खुदा के रास्ते को अख्तियार करता है तो फिर अपने आप मंजिलें इस्तइकबाल करने चलीं आतीं हैं। वहां न तो अल्फाजों का अम्बर होता है और न ही कुछ करने की जरूरत। सब कुछ खुदा की मर्जी से खुद-ब-खुद होता चला जाता है। इस हकीकत को बेपर्दा करने वालों को हशिये पर पहुंचा दिया गया है। मालिक की रजा पर खुद के कायदे काबिज होते जा रहे हैं। जातियों का जंजाल सभी सम्प्रदायों में तेजी से फैलता जा रहा है। कहीं राम और कृष्ण को जातियों बांट दिया गया है तो कहीं देवबंद और बरेली के झगडे सामने आ रहे हैं। आज देश-दुनिया में चारों ओर खुदगर्जी की धरती पर बटवारे का दावानल निरंतर तेज होता जा रहा है। इसे रोकने के लिए वास्तविक धर्म, मजहब और मंशा का पुनर्जागरण नितांत आवश्यक हो गया है अन्यथा शासक बनने की ख्वाइश में खतरनाक हथियारों का इस्तेमाल सब कुछ समाप्त कर देगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

Dr. Ravindra Arjaria